Monday, July 20, 2009

मुझ में नही...


आशिक हूँ, आवारा हूँ, हूँ भँवरे से कम नहीं,
कागजी फूलों से दिल बहला लूँ, ये फ़ितरत मुझ में नहीं...

खूब रूहों से हो ही जाती है मोहब्बत क्या करूँ,
फ़कत तुम ही तुम नज़र आओ, ये किफ़ायत मुझ में नहीं...

चेहरे से खुद-बा-खुद हो जाती है दिल की हालत बयां,
इश्क को साबित कर सकूँ, ये हिमाक़त मुझ में नहीं...

इश्क जो हुआ है तो सर कलम हुआ ही समझो,
यूँ भी सर के बल चलने की आदत मुझ में नहीं...

दिल की बात ज़ुबां पर लाकर गफ़लत पैदा क्यूँ करूँ,
लफ्जों को सजा कर कहने की नफ़ासत ही जब मुझ में नहीं...

दुनिया समझती है गर बेवफा तो समझा करे,
इश्क में तेरा कैदी बन जून, वो शराफ़त मुझ में नहीं...

दौलत और हुस्न के मादक रंग उकसाते हैं मुझे भी,
पर इन्हें ही अपना मसीहा मान लूँ, ये बगावत मुझ में नहीं...

हर दिल अज़ीज़ हो जाने से होती है उन्हें कोफ़्त,
अब सूरज किसी एक के तामिल रहे, ये काएनात मुझ में नहीं...

इस आशिक मीजाजी से कुछ रिश्तों में दरार आई,
चलो अच्छा ही हुआ, कमज़ोर ईमारतों को बुलंद रखने की ताक़त भी मुझ में नहीं...

आवारगी की मिली है ये सज़ा मुझको यारब,
तेरी महफिल में हो हमारी शिरक़त, ये इनायत मुझ को नहीं...

मय से ही प्यास बुझा लेते हैं अब हम 'मनीष',
नज़रों से पिला सको, वो लियाक़त तुम में नही...