Monday, November 26, 2012

परदे में रहने दो...

परदे में रहने दो
पर्दा ना उठाओ
पर्दा जो खुल गया तो 

आप वो समझें जो आपको सुकून दे जाए
हम वो कहते/करते हैं जो हमको रास आये 
झगडा फिर किस बात का है 'बेदार'
यादें महबूब की चाहे हमें हंसाये या फिर रुलाये ..??

आंसू आनंद के हों या हो फिर गम के 
वो आशिक ही कैसा 
जो रोये दूसरों को परवरदिगार, गुनाहगार या कसूरवार समझ के ..??

तुम चाहे जितने बन सकें लगा सकते हो यारों 
मुझ नाचीज पर अपनी अक्ल लगाकर तरह-तरह के तमगे 
कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे फिर गोरे हों या काले हों वे तमगे ...

वैसे भी सिर्फ मेरे बोल, 
मेरी वाणी या मेरे अंदाज को सबकुछ मानकर पेश किये गए हैं वे तमगे ...

जान लो मुझसे ही तुम ये आज 
की 
सुकून मेरे अल्फाजों में नहीं 
एक नश्तर सा एहसास है 
चुभती है मेरी वाणी सदा से लोगों को यूँ ही 
वैसे एक दिलवाले कान की हमको भी 
सदा से ही रही तलाश है ...

जाने कब के चुप हो जाते हम बेदर्दी कसम से 
शुक्राने आपके !!
के वो बर्दाश्त-इ-हुनर आप सब सबुरी वाले लोगों के पास है ...

कल्पेश याग्निक जी की परिभाषा के अनुसार तो 
खुदाया !!
खुदा भी गलत, खुदाई भी ग़मगीन 
और खुदाया, खुदी तो खैर है ही नमकीन 
परदे में जो रख छोड़ा है
 खुदा ने सबकुछ !!??!!
न कभी कहा खुदा ने खुलकर की "वो है"
और न ही कभी वो इतराया 'दीनिक भास्कर" की तरह ये कहकर की 'हमने किया'   

ग़ालिब तुझे हम वाली ही समझते 
गर ना तू बदखार होता 
की किस बेखुदी में ना खोलकर भी 
खोल गए तुम ये राज़ की;
कह सके कौन
 की ये जल्वागिरी किसकी है
   पर्दा रख छोड़ा है वो उसने 
     उठाये ना बने ...   

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